भारत के गौरवशाली इतिहास और अद्भुत स्थापत्य कला की बात करें, तो राजस्थान का चित्तौड़गढ़ किला एक प्रमुख धरोहर के रूप में सामने आता है। यह किला न सिर्फ वीरता और बलिदान की मिसाल है, बल्कि यहां मौजूद दो भव्य स्तंभ — विजय स्तंभ और कीर्ति स्तंभ — भी इतिहास प्रेमियों और पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र हैं। अक्सर इन दोनों को लेकर लोगों में भ्रम रहता है कि क्या ये एक ही स्मारक के दो नाम हैं, या फिर दो अलग-अलग ऐतिहासिक संरचनाएं हैं।इस लेख में हम स्पष्ट करेंगे कि चित्तौड़गढ़ स्थित विजय स्तंभ और कीर्ति स्तंभ दो अलग-अलग स्मारक हैं, जिनका निर्माण उद्देश्य, स्थापत्य शैली, कालखंड और धार्मिक संदर्भ भी एक-दूसरे से भिन्न है।
1. विजय स्तंभ – एक योद्धा की अमर गाथा
विजय स्तंभ, जिसे "टॉवर ऑफ विक्ट्री" भी कहा जाता है, चित्तौड़गढ़ किले के भीतर स्थित है और यह मेवाड़ के महान शासक महाराणा कुम्भा द्वारा 1448 ईस्वी में बनवाया गया था। इस स्तंभ का निर्माण मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर विजय की स्मृति में कराया गया था।
प्रमुख विशेषताएं:
ऊँचाई: विजय स्तंभ लगभग 37.19 मीटर (122 फीट) ऊँचा है और इसमें 9 मंजिलें हैं।
स्थापत्य: यह पूर्ण रूप से हिंदू स्थापत्य पर आधारित है, जिसमें भगवान विष्णु, राम, कृष्ण, देवी-देवताओं और अन्य पौराणिक दृश्यों की सुंदर नक्काशी की गई है।
धार्मिक संदर्भ: यह स्तंभ विजय की प्रतीक है लेकिन इसमें धार्मिक छवियों और शिलालेखों के माध्यम से मेवाड़ की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाया गया है।
निर्माण सामग्री: पीले बलुआ पत्थर से बना यह स्तंभ राजपूत स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण है।
विजय स्तंभ की दीवारों पर देवनागरी लिपि में संस्कृत शिलालेख भी मिलते हैं, जिनमें राजाओं के वंशवृक्ष और वीरता की गाथाएं खुदी हुई हैं।
2. कीर्ति स्तंभ – श्रद्धा और जैन धर्म की पहचान
कीर्ति स्तंभ एक अन्य ऐतिहासिक स्तंभ है जो चित्तौड़गढ़ किले में ही स्थित है लेकिन इसका निर्माण और उद्देश्य विजय स्तंभ से पूरी तरह अलग है। यह स्तंभ 12वीं शताब्दी में एक जैन व्यापारी जीजु भगवंत द्वारा बनवाया गया था।
प्रमुख विशेषताएं:
ऊँचाई: यह स्तंभ लगभग 22 मीटर (72 फीट) ऊँचा है।
धार्मिक संदर्भ: यह स्तंभ पूरी तरह जैन धर्म को समर्पित है और मुख्यतः पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ को समर्पित किया गया है।
स्थापत्य शैली: इसमें जैन मूर्तिकला और परंपरा के अनुरूप intricate (सूक्ष्म) नक्काशी की गई है। इसमें जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ चारों ओर खुदी हुई हैं।
लक्ष्य: यह स्तंभ किसी युद्ध विजय के लिए नहीं, बल्कि धार्मिक श्रद्धा और मोक्ष मार्ग की प्रेरणा के रूप में खड़ा किया गया था।
यह स्तंभ कम ऊँचा जरूर है, लेकिन इसकी कलात्मकता और धार्मिक गूढ़ता उतनी ही अद्वितीय है जितनी विजय स्तंभ की भव्यता।
3. विजय स्तंभ और कीर्ति स्तंभ में मुख्य अंतर
निर्माण काल | 15वीं सदी (1448) | 12वीं सदी |
निर्माता | महाराणा कुम्भा | जैन व्यापारी जीजु भगवंत |
उद्देश्य | युद्ध में विजय की स्मृति | धार्मिक श्रद्धा और तीर्थंकरों की महिमा |
धार्मिक जुड़ाव | हिंदू धर्म | जैन धर्म |
ऊँचाई | 37.19 मीटर | 22 मीटर |
स्थापत्य शैली | राजस्थानी-हिंदू शैली | जैन मूर्तिकला पर आधारित |
मुख्य आकर्षण | भगवान विष्णु, कृष्ण की छवियाँ | तीर्थंकर ऋषभनाथ और अन्य तीर्थंकर |
4. क्यों जरूरी है इन दोनों को अलग पहचान देना?
बहुत से पर्यटक और इतिहास प्रेमी चित्तौड़गढ़ जाते समय इन दोनों स्तंभों को एक ही समझ बैठते हैं। लेकिन इनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, स्थापत्य शैली और धार्मिक महत्ता में इतना गहरा अंतर है कि इन्हें एक-दूसरे से भ्रमित करना इनकी वास्तविक पहचान और उद्देश्य को नजरअंदाज करना होगा।विजय स्तंभ मेवाड़ की सैन्य शक्ति, रणनीति और साहस का प्रतीक है।वहीं कीर्ति स्तंभ अहिंसा, ध्यान, और जैन धर्म की आध्यात्मिक ऊँचाई को दर्शाता है।
5. निष्कर्ष: विरासत की दो अलग कहानियाँ, एक ही धरा पर
चित्तौड़गढ़ न केवल रानी पद्मिनी और महाराणा प्रताप जैसे वीरों की भूमि रही है, बल्कि यह भारत के विविध धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों का संगम भी है। विजय स्तंभ और कीर्ति स्तंभ — ये दोनों स्तंभ अपने-अपने स्थान पर अमूल्य हैं। एक में वीरता की कहानी है, तो दूसरे में मोक्ष की प्रेरणा। एक में तलवार की ताकत है, तो दूसरे में तपस्या की तीव्रता।इसलिए अगली बार जब आप चित्तौड़गढ़ जाएं, तो दोनों स्तंभों की अलग-अलग कहानियों को जानें, समझें और भारत की सांस्कृतिक विविधता को नमन करें।
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