2024 का अंत सीरिया में बशर अल असद की सत्ता के अंत से हुआ. सीरिया से बशर अल असद का जाना रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लिए किसी भी लिहाज से ठीक नहीं था.
पश्चिम एशिया में रूस की मज़बूत मौजूदगी के लिए सीरिया में बशर अल असद की सत्ता में मौजूदगी अहम थी, लेकिन पिछले साल दिसंबर में असद को रूस में शरण लेनी पड़ी थी. रूस ख़ुद भी फ़रवरी 2022 से यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा हुआ है.
अब ईरान पर इसराइल ने हमला किया है और उसे अमेरिका का पूरा समर्थन हासिल है. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर ईरान में भी सत्ता परिवर्तन होता है, तो पश्चिम एशिया में रूस की बची-खुची मौजूदगी और सिमट जाएगी
ईरान मुश्किल में है लेकिन रूस उसकी मदद नहीं कर रहा है. ऐसे में रूस को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. पहला यह कि रूस ईरान की मदद क्यों नहीं कर रहा है? दूसरा यह कि अगर ईरान इसराइल से युद्ध हार जाता है तो रूस पर इसका क्या असर पड़ेगा?
इस साल की शुरुआत में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और ईरानी राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियान के बीच एक रणनीतिक साझेदारी समझौता भी हुआ था. इस समझौते में सुरक्षा सहयोग बढ़ाने की बात कही गई है.
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अब तक रूस ने इसराइल-ईरान युद्ध को लेकर जो रुख़ अपनाया है, वह अपेक्षाकृत संतुलित और सतर्क दिखाई देता है. रूस ईरान पर इसराइली हमले का विरोध कर रहा है लेकिन इसराइल के ख़िलाफ़ कोई मदद नहीं कर रहा है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्टके मुताबिक़, संघर्ष की शुरुआत यानी 13 जून को ही रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इसराइल और ईरान, दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों से फोन पर बातचीत की थी.
पुतिन ने ईरान के राष्ट्रपति से कहा था कि मॉस्को तेहरान के ख़िलाफ़ इसराइल की कार्रवाई की निंदा करता है. वहीं, इसराइल के प्रधानमंत्री से बात करते हुए उन्होंने यह ज़ोर देकर कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़ी चिंताओं का समाधान केवल कूटनीति के ज़रिए ही निकाला जा सकता है.
इसके कुछ दिन बाद, रूस की सरकारी न्यूज़ एजेंसी तास ने जानकारी दी कि पुतिन ने संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति मोहम्मद बिन ज़ायेद अल नाहयान से फोन पर चर्चा के दौरान यह भी संकेत दिया कि रूस, इसराइल और ईरान के बीच वार्ता की मध्यस्थता करने के लिए तैयार है.
यानी अब तक रूस का रवैया स्पष्ट रूप से यह दिखाता है कि वह इस युद्ध में कूटनीतिक रास्ता अपनाना चाहता है न कि सैन्य हस्तक्षेप. ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर क्या वजह है जो रूस, अपने रणनीतिक सहयोगी ईरान की खुलकर मदद करता नहीं दिख रहा है?
ईरान को रूस मदद क्यों नहीं कर रहा है?डॉ. राजन कुमार, दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.
वो कहते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण है कि रूस ख़ुद यूक्रेन युद्ध में उलझा हुआ है और वो अमेरिका के साथ अपने संबंध और नहीं बिगाड़ना चाहता.
डॉ. राजन कुमार कहते हैं, ''अगर यूक्रेन युद्ध न होता, तो संभव था कि रूस पूरी तरह से ईरान के साथ खड़ा होता क्योंकि ईरान अब रूस के लिए बहुत अहम सहयोगी देश बन गया है. ख़ासकर सीरिया से रूस के हटने के बाद. दूसरी बात यह है कि रूस को ख़ुद हथियारों की ज़रूरत है, इसलिए वह ईरान को ज़्यादा सैन्य मदद नहीं दे सकता. पहले कुछ हथियार जैसे ड्रोन वगैरह ईरान से रूस को मिले थे लेकिन अब स्थिति उलटी है, ईरान को ही मदद चाहिए.''
ईरान ने रूस को ड्रोन भी दिए हैं, जो यूक्रेन के ख़िलाफ़ युद्ध में रूस के लिए अहम साबित हुए हैं. वहीं ईरान के पास आज भी रूस के कुछ हथियार हैं, जैसे S-300 डिफ़ेंस सिस्टम.
डॉ. राजन कुमार कहते हैं, ''एक और वजह यह है कि ट्रंप के साथ रूस की बातचीत चल रही थी और रूस चाहता था कि अमेरिका के साथ बातचीत की गुंजाइश बनी रहे. ऐसे में रूस किसी एक पक्ष में खुलकर आने से बच रहा है.''
इस संघर्ष से रूस को क्या मिल सकता है?
हालांकि, इस युद्ध से रूस के लिए कुछ संभावित फ़ायदों को भी गिनाया जा रहा है. उदाहरण के तौर पर तेल की वैश्विक क़ीमतों में इजाफे की संभावना, जिससे रूस की आमदनी बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है.
डॉ. राजन कुमार कहते हैं, ''रूस को कुछ फ़ायदे भी हैं. जैसे अगर तेल के दाम बढ़ते हैं तो रूस को आर्थिक रूप से फ़ायदा होता है.''
साथ ही रूस की कोशिश ये भी है कि वो ख़ुद को मध्य-पूर्व में एक पीस मेकर की भूमिका में पेश कर सके.
हालांकि, डॉ. राजन कुमार का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हालिया बयानों से ऐसा लगता है कि वो रूस की इस कोशिश को पूरा करने के मूड में नहीं हैं. वो (ट्रंप) पूरा दबाव बनाने की रणनीति अपना रहे हैं, जिसमें रूस की मध्यस्थता की कोई जगह नहीं बचती.''
डॉ. राजन कुमार कहते हैं कि अगर ईरान इस संघर्ष में कमज़ोर पड़ता है तो रूस को नुक़सान भी है. वो कहते हैं, ''ईरान कमज़ोर होता है तो अमेरिका और इसराइल पश्चिम एशिया में पूरी तरह हावी हो सकते हैं. ऐसा न तो रूस चाहता है, न चीन, न तुर्की और न ही इस्लामिक देश.''
पिछले छह महीनों में रूस पश्चिम एशिया में अपना एक महत्वपूर्ण साझेदार पहले ही खो चुका है. दिसंबर में जब सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद को सत्ता से हटाया गया, तो रूस ने उन्हें शरण दी थी.
अब ईरान-इसराइल के बीच चल रहे संघर्ष में रूस के लिए एक और रणनीतिक सहयोगी को खोने का ख़तरा बना हुआ है.
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शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) और ब्रिक्स जैसे संगठन ईरान के समर्थन में सहयोग के लिए आगे क्यों नहीं आ रहे हैं? ईरान तो इन दोनों संगठनों का हिस्सा है.
इसके जवाब में डॉ. राजन कुमार कहते हैं कि इन संगठनों में सहयोग राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर है, ये कोई सैन्य गठबंधन नहीं हैं.
वो बताते हैं, ''ब्रिक्स में लोकतांत्रिक देश भी हैं, जो पश्चिमी देशों से सीधे टकराव में नहीं आना चाहते. एससीओ ज़रूर ज्यादा एंटी-वेस्ट है, लेकिन यह भी सुरक्षा पर सिर्फ़ बयान देता है, कोई सैन्य कार्रवाई नहीं करता.''
''रूस और चीन दोनों अपने पश्चिमी देशों से जुड़े हितों को पूरी तरह से बलि नहीं देना चाहते. अगर अमेरिका रूस पर सेकेंडरी सैंक्शन लगा दे तो भारत और चीन जैसे देश प्रभावित होंगे और रूस की अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान होगा. इसलिए ये देश केवल बयानबाज़ी तक सीमित हैं.''
ईरान का कमज़ोर होनाअंग्रेज़ी अख़बार 'द हिन्दू' के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ''अगर ईरान इस युद्ध में हार जाता है तो इसराइल का पश्चिम एशिया में प्रभाव और बढ़ जाएगा. सीरिया से बशर अल असद पहले ही बाहर हो चुके हैं. ईरान समर्थित हथियारबंद समूह पहले ही कमज़ोर हो चुके हैं. ग़ज़ा को इसराइल पहले ही तबाह कर चुका है. वेस्ट बैंक में उसका जो मन होगा, वह करेगा. अगर ईरान कमज़ोर होता है तो पश्चिम एशिया में रूस का बचा-खुचा प्रभाव भी सिमट जाएगा. चीन गल्फ़ में अमेरिकी सहयोगियों के तेल पर और अधिक आश्रित हो जाएगा.''
इसके अलावा एक सवाल और है कि अगर ईरान कमज़ोर पड़ता है तो क्या 'बहुध्रुवीय दुनिया' की सोच को झटका लगेगा.
रूस, भारत समेत कई देश बहुध्रुवीय व्यवस्था वाली दुनिया की बात करते आए हैं.
ऐसे में क्या ईरान-इसराइल के बीच का ये संघर्ष इस सोच के लिए झटका है.
इस सवाल के जवाब में डॉ. राजन कुमार कहते हैं कि अगर अमेरिका खुलकर युद्ध में कूदता है तो ईरान की सरकार का टिकना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अमेरिका विजेता होगा.
वो कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया, हर जगह पश्चिमी हस्तक्षेप के बाद स्थिति बदतर हुई है. कट्टरपंथी ताक़तें सत्ता में आ गईं और आतंकवाद बढ़ा.''
''ईरान की हार से पश्चिमी एशिया में फिर से वही चक्र शुरू हो सकता है, शरणार्थी संकट, अस्थिरता और आतंकवाद का बढ़ना.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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- इसराइल के ख़िलाफ़ इस्लामिक देशों के लिए एकजुट होना इतना मुश्किल क्यों है?
- ईरान-इसराइल संघर्षः रूस को पश्चिम एशिया में एक और झटका लगने का डर क्यों सता रहा है?
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