
बिहार में चुनाव आयोग के विशेष मतदाता गहन परीक्षण (स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न या एसआईआर) पर सियासत थमने का नाम नहीं ले रही है. इसको लेकर बुधवार को विपक्षी दलों के 'इंडिया' गठबंधन की 10 पार्टियों ने दिल्ली में मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार से मुलाक़ात की थी.
इस मुलाक़ात के बाद विपक्षी दलों के नेताओं ने चुनाव आयोग को लेकर अपनी नाराज़गी स्पष्ट तौर पर ज़ाहिर की.
बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष राजेश राम ने कहा, "चुनाव आयोग के अधिकारियों का रवैया देखकर ऐसा लगता था कि उन्होंने ठान लिया है कि बिहार के 20 फ़ीसदी वोटरों से उनका अधिकार छीन लेना है."
विपक्षी नेताओं का आरोप है कि ये बीस फ़ीसदी वोटर ग़रीब, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के हैं, जिसका एक बड़ा हिस्सा उनका समर्थक मतदाता है.
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बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. वहीं साल 2026 में असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी में भी विधानसभा चुनाव होने हैं.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कहा है, "चुनाव आयोग बीजेपी के इशारे पर काम कर रहा है और बैकडोर से एनआरसी लागू करने की कोशिश कर रहा है."
माना जा रहा है कि देश में सबसे पहले बिहार में हो रहे इस एसआईआर ने न सिर्फ़ बिहार के विपक्षी दलों को बल्कि एनडीए में बीजेपी के कई सहयोगी दलों को भी बेचैन कर दिया है.
हालांकि अभी एनडीए के सहयोगी दलों की बेचैनी सतह पर नहीं आई है.
बीजेपी नेता और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने ऐसी आशंकाओं को ख़ारिज करते हुए इसे चुनाव आयोग की 'रुटीन एक्सरसाइज़' बताया है.
उन्होंने कहा, "विपक्ष ग़लतबयानी करके मतदाताओं को गुमराह करना चाहता है. साल 2003 में भी पुनरीक्षण महज़ 31 दिनों में हो गया था."
एसआईआर के संबंध में चुनाव आयोग ने कहा है, "प्रत्येक निर्वाचन से पूर्व मतदाता सूची का पुनरीक्षण जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21(2)(ए) और निर्वाचक पंजीकरण नियमावली, 1960 के नियम 25 के अंतर्गत अनिवार्य है. आयोग बीते 75 साल से यह काम कभी संक्षिप्त तो कभी गहन रूप में करता रहा है."
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बीती 24 जून को चुनाव आयोग ने बिहार में एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न) की घोषणा की थी.
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग का एसआईआर "भ्रम, अनिश्चितता और दमन" से भरा हुआ है. उन्होंने इसे "लोकतंत्र की नींव पर हमला" कहा है.
तेजस्वी यादव ने कहा, "बिहार के आठ करोड़ मतदाताओं में से 59 फ़ीसदी 40 साल या उससे कम उम्र के हैं. इसका मतलब है कि चार करोड़ 76 लाख लोगों को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी."
"साल 2001 से 2005 के बीच जन्में बच्चों में केवल 2.8 फ़ीसदी के पास जन्म प्रमाणपत्र थे. आयोग बीजेपी के सेल की तरह काम कर रहा है और उसकी तमाम शर्तें एनआरसी जैसी है. अगर मतदाता सूची में सुधार करना होता तो लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद पूरे देश में किया जाता. बिहार को निशाना क्यों बनाया जा रहा है?"
वहीं भाकपा (माले) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इसे 'ग़रीबों की वोटबंदी' कहा है.
दीपांकर कहते हैं, "जुलाई के महीने में बिहार के मज़दूर कृषि कार्य के लिए बाहर जाते हैं. ऐसे में ये प्रक्रिया लाखों लोगों के मतदाता सूची से बाहर करने का ज़रिया बन जाएगी. ये क़दम लोकतंत्र की खुली हत्या है और अगर आयोग को विशेष गहन पुनरीक्षण जैसी बड़ी प्रक्रिया करनी थी तो राजनीतिक दलों से सलाह क्यों नहीं ली गई?"
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24 जून को एसआईआर पर नोटिफ़िकेशन जारी करने के बाद चुनाव आयोग तीन बार अधिक जानकारियों को लेकर अलग-अलग 'नोटिफ़िकेशन' निकाल चुका है जिनमें दस्तावेज़ों के संबंध में बार-बार सुधार किया जा रहा है.
चुनाव आयोग ने जन्म तिथि/जन्म स्थान से संबंधित जिन 11 मान्य दस्तावेज़ों की सूची दी है उनमें आधार कार्ड, राशन कार्ड, मनरेगा जॉब कार्ड, पैन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस मान्य नहीं हैं.
आयोग ने इसकी तीन कैटेगरी बनाई हैं.
जिनका जन्म 1 जुलाई 1987 से पहले हुआ है - उन्हें केवल ख़ुद का दस्तावेज़ देना होगा.
1 जुलाई 1987 से 2 दिसंबर 2004 के बीच जन्म लेने वाले वोटरों को - अपना और किसी एक अभिभावक का दस्तावेज़ पेश करना होगा.
2 दिसंबर 2004 के बाद जन्म लेने वाले वोटरों को – अपना और अपने दोनों अभिभावकों का दस्तावेज़ पेश करना होगा.
आयोग ने 3 जुलाई को जारी प्रेस रिलीज़ में कहा है- साल 2003 की मतदाता सूची में जिनका नाम है, उन्हें केवल गणना प्रपत्र और मतदाता सूची (साल 2003 की) के उस पेज की फ़ोटो कॉपी लगानी होगी, जहां उनका नाम है.
जिन मतदाताओं के माता-पिता के नाम साल 2003 की मतदाता सूची में हैं उन्हें माता पिता से संबंधित किसी दस्तावेज़ को देने की ज़रूरत नहीं है. उन्हें सिर्फ़ अपने दस्तावेज़ देने होंगे.
चुनाव आयोग के इस तरह बार-बार के 'नोटिफ़िकेशन' (आयोग इसे स्पष्टीकरण कहता है) जारी करने को किस तरह देखा जाना चाहिए?
इस पर राजनीतिक विश्लेषक और स्वराज अभियान के सह-संस्थापक योगेन्द्र यादव कहते हैं, "अभी ऐसे और आदेश या बदलाव होंगे. मज़े की बात यह है कि आयोग इसे बदलाव नहीं मान रहा बल्कि स्पष्टीकरण कह रहा है."
"चुनाव आयोग जो दस्तावेज़ों की शर्तें लगा रहा है उसे पूरी करना असंभव है. अब चुनाव आयोग अपना आदेश वापस नहीं ले सकता, इसलिए बदलाव होते रहेंगे. आयोग ने जो शर्तें लगाई हैं उससे बीजेपी के सहयोगियों को दिक़्क़त होने वाली है."
'मुसहर समुदाय को दिक़्क़त हुई तो करेंगे विरोध'योगेन्द्र यादव जिन दिक़्क़तों की बात कर रहे हैं उसे एनडीए के सहयोगी दल महसूस तो कर रहे हैं, लेकिन ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं.
बिहार के जातीय सर्वे के आंकड़ों में ही सहयोगी दलों को भविष्य में आने वाली परेशानियों के संकेत हैं. सहयोगी दलों के कोर वोटर जिस सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं, उनके लिए भी चुनाव आयोग के बताए दस्तावेज़ जुटाना मुश्किल है.
एनडीए में बीजेपी को जहां सवर्णों की पार्टी माना जाता है वहीं जेडीयू अति पिछड़ों के समर्थन वाली पार्टी मानी जाती है. चिराग पासवान की एलजेपी (आर) का वोट बेस 'पासवान' है, तो पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी 'हम' का मुसहर समुदाय और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोमो का वोट बैंक कुशवाहा वोटर हैं.
एलजेपी (आर) के प्रमुख चिराग पासवान ने कहा, "ईवीएम के बाद विपक्ष अब एसआईआर से डर गया है. विपक्ष को अपनी हार सामने दिख रही है."
बिहार में अनुसूचित जाति में 22 दलित जातियां हैं, जिनमें पासवान राजनीतिक तौर पर सबसे ज़्यादा मज़बूत है. एनडीए में चिराग पासवान के अलावा दूसरा दलित चेहरा जीतनराम मांझी हैं.
वहीं 'हम' के संरक्षक जीतनराम मांझी को मुसहर समुदाय के सबसे बड़े नेता के तौर पर देखा जाता है. मुसहर समुदाय अनुसूचित जाति में सबसे ज़्यादा ग़रीब माना जाता है.
'हम' के राष्ट्रीय अध्यक्ष और जीतनराम मांझी के बेटे संतोष कुमार सुमन बीबीसी से कहते हैं, "ये सही है कि हमारे लोगों के पास डॉक्यूमेंट नहीं है. लेकिन चुनाव आयोग की कोशिश है कि घुसपैठियों की पहचान हो और कोई भी भारतीय नागरिक छूटे नहीं."
"हम वेट एंड वॉच कर रहे हैं. अगर हमारे मुसहर समुदाय को किसी तरह की दिक़्क़त हुई तो हम ही सबसे पहले इस पुनरीक्षण का विरोध करेंगे और चीज़ें सही कराई जाएंगी."
वहीं बीजेपी की एक अन्य सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा इसे विपक्ष का 'आउट ऑफ़ प्रोपोरशन रिएक्शन' कहते हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "चुनाव आयोग सत्यापन का काम करता आया है. इसमें कोई नई बात नहीं है. इतना ज़रूर है कि जब इलेक्शन क़रीब है तब सत्यापन हो रहा है."
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इस बीच एसआईआर अभियान को लेकर नेताओं के बीच भी जानकारी बहुत कम है और भ्रम की स्थिति बनी हुई है.
बीबीसी ने एनडीए के कई नेताओं से बात की, लेकिन उन्हें इस अभियान और वोटर के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों की जानकारी नहीं है.
इसकी बड़ी वजह यह है कि नेता अपना पसीना, अपने विधानसभा क्षेत्र में बहा रहे हैं और उनका अच्छा ख़ासा समय क्षेत्र के लोगों के साथ संपर्क में ही बीत रहा है.
25 जून से शुरू हुआ चुनाव आयोग का अभियान अब धीरे धीरे तेज़ी पकड़ रहा है जिसके बाद ही आम लोगों को इसकी जानकारी होने की उम्मीद है.
भागीरथी देवी पश्चिम चंपारण की रामनगर सीट से बीजेपी की पांच बार विधायक हैं. रामनगर की सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. भागीरथी बीबीसी से कहती हैं, "हमको इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. ये सब बड़े नेता जानेंगे."
चुनाव पारदर्शिता से हो, इसमें महत्वपूर्ण भूमिका बूथ लेवल एजेंट (बीएलए) की होती है. आयोग की प्रेस रिलीज़ के मुताबिक़, "राजनीतिक दलों ने 1,54,977 बूथ लेवल एजेंट नियुक्त किए हैं. उनकी सक्रिय भागीदारी के कारण ये प्रक्रिया पारदर्शिता के साथ संचालित हो रही है."
लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण सवाल जेडीयू की प्रवक्ता अंजुम आरा उठाती हैं.
वह कहती है, "विपक्षी गठबंधन के आरोपों का जवाब देने के लिए चुनाव आयोग सक्षम है. वह अपना काम करेगा. लेकिन पब्लिक डोमेन में जो बीएलए का डेटा होता है वह कभी भी पॉलिटिकल पार्टी 100 फ़ीसदी हासिल नहीं कर पाती. ये डेमोक्रेसी के लिए चिंता का विषय है."
यानी अगर बिहार के 98,498 बूथ लेवल ऑफ़िसर (77,895 मौजूद हैं, जबकि 20,603 की नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है) के साथ बूथ लेवल एजेंट, सक्रिय नहीं हुए तो मतदाताओं की मुश्किलें सामने नहीं आ पाएंगी. जिससे 'योग्य' मतदाता का बड़ा हिस्सा छूट जाने की आशंका भी है.
किसी राजनीतिक दल पर क्या कोई पड़ेगा असर?राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव ने इसे 'नोटबंदी, देशबंदी के बाद वोटबंदी' कहा है.
चुनाव आयोग की इस पूरी कवायद को अगर वोट के नज़रिए से देखा जाए तो क्या किसी को कोई लाभ-हानि होती दिख रही है?
इस सवाल पर योगेन्द्र यादव ने बीबीसी से कहा, "बिहार के वोटरों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है. पहले वे जिनके पास चुनाव आयोग द्वारा मांगे गए 11 दस्तावेज़ होंगे. दूसरे वे जिनके पास ये दस्तावेज़ हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं. तीसरे वे जिनके पास इन दस्तावेज़ों में से कोई नहीं होगा."
"जिनके पास दस्तावेज़ हैं उनका 60 फ़ीसदी वोट बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को जाता है. जबकि जिनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं, उनके वोटिंग पैटर्न में महागठबंधन को 15 से 20 फ़ीसदी की लीड रहती है. यानी एनडीए का वोट मज़बूत हुआ और महागठबंधन का कमज़ोर. साफ़ है कि फ़ायदा एनडीए का होने वाला है."
वह आगे कहते हैं, "हिंदुस्तान में वोटर लिस्ट को जानबूझकर बहुत उदार रखा गया था. क्योंकि हमें ये पता था कि देश की 70 फ़ीसदी आबादी के पास दस्तावेज़ नहीं हैं. चुनाव आयोग का निर्देश रहा है कि सेक्स ट्रेड, भिखारी, ट्रांसजेंडर, तीन दिन से कहीं पर कोई व्यक्ति सो रहा है तो उसका नाम भी वोटर लिस्ट में होना चाहिए."
"लेकिन इस क़दम से बड़े पैमाने पर लोग मताधिकार से वंचित होंगे. जैसे अफ़्रीकी-अमेरिकी लोगों के साथ अमेरिका में हुआ था. इस एक क़दम ने भारत के संविधान को ताक पर रख दिया है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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