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बिहार में वोटर लिस्ट रिवीज़न पर योगेंद्र यादव बोले- 'ये तीन चीज़ें भारत में 75 साल के इतिहास में कभी नहीं हुईं'

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बिहार में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (एसआईआर) करवा रहा है. इसको लेकर विपक्षी दल और जानकार कई तरह के सवाल उठा रहे हैं.

एक तरफ़ चुनाव आयोग का तर्क है कि इस प्रक्रिया से मतदाता सूची में सुधार किया जा रहा है. यानी वोटर लिस्ट से डुप्लीकेट, मृत लोगों के नाम या फिर ऐसे नाम हटाए जाएंगे जो ग़लत पते पर दर्ज हैं.

वहीं विपक्ष का आरोप है कि यह एक 'साफ़-सुथरी प्रक्रिया' नहीं है, बल्कि राजनीतिक साज़िश है. विपक्ष का दावा है कि इससे लाखों नाम हटाए जा रहे हैं, जो ख़ासकर एक समुदाय और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों को प्रभावित करेगा.

इस प्रक्रिया पर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं कि क्योंकि चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने के लिए जिन 11 दस्तावेज़ों की मांग की है, वो कई लोगों के पास नहीं हैं.

यही कारण है कि इस प्रक्रिया के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर हुईं.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, लेकिन चुनाव आयोग को आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड जैसे दस्तावेज़ों को वैध मानने पर विचार करने का निर्देश दिया.

चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया पर उठते सवालों के जवाब तलाशने के लिए बीबीसी हिंदी के संपादक नितिन श्रीवास्तव ने चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव से बात की.

योगेंद्र यादव उन याचिकार्ताओं में भी शामिल हैं, जिन्होंने चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया है.

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'आठ करोड़ लोगों के नाम जोड़ने की प्रक्रिया चार हफ़्ते में कैसे पूरी होगी?' image BBC

सवाल: चुनाव आयोग के बिहार में वोटर लिस्ट रिवीज़न से जुड़े आदेश के बाद आपने लिखा था, 'दिल्ली से एक तुग़लकी फ़रमान जारी हुआ और बिहार में रायता फैल गया'. यह किस किस्म के रायता फैलने की बात कही गई थी?

जवाब: रायता फैलना जो मुहावरा है, उसका किसी भाषा में अनुवाद नहीं हो सकता.

जिस दिन यह एसआईआर आदेश जारी हुआ था, यह स्पष्ट था कि यह आदेश बिहार में अगले चार सप्ताह में लागू नहीं हो सकता है. बाकी हिंदी प्रदेशों का अपना एक अलग चरित्र है, बिहार का एक अपना चरित्र और भाषा है.

अपने लेख में मैंने यह भी लिखा था कि क्या चुनाव आयोग बिहार को बुड़बक समझता है? 24 जून की शाम को दिल्ली से आदेश जारी हुआ कि 25 तारीख़ की सुबह बिहार के गांव-गांव में बीएलओ वो फ़ॉर्म भरवाना शुरू करेंगे जो कि यूनिक और क्यूरेटेड फ़ॉर्म है. इस फ़ॉर्म में नाम, फ़ोटो और एपिक नंबर छपा होता है.

इसका मतलब है कि अगले 12 घंटे में बीएलओ को गांव में जानकारी भी देनी है, वो फ़ॉर्म भी कहीं जादू से छपवा लेगा और दौड़ता हुआ सुबह 8 बजे से उसे भरवाना भी शुरू कर देगा.

आठ करोड़ लोगों के घरों में बीएलओ को पहुंचना है और उन्हें फ़ॉर्म की दो कॉपी देनी है और लोगों को ये फ़ॉर्म भरना है. वो तमाम लोग जो पंजाब, केरल, लेह-लद्दाख, मिजोरम या कहीं और रह रहे हैं उन्हें भी ये फॉर्म भरना है, फ़ोटो चिपकानी है, हस्ताक्षर करने हैं, दस्तावेज नत्थी करने हैं और फिर बीएलओ के पास इन्हें जमा करना है.

इसके बाद बीएलओ को इन्हें अपलोड करना है और अपनी रिकमेंडेशन भी देनी है. ये सब अगले चार सप्ताह में होने वाला था. इसीलिए पहले दिन ही मैंने कहा था कि ये असंभव है.

'एसआईआर केवल बिहार के लिए नहीं है' image BBC

चुनाव आयोग ने सर्वे के पहले फेज़ के तहत बताया है कि करीब 35 लाख वोटर ऐसे हैं जो अभी तक उन्हें नहीं मिल पाए हैं. इसके अलावा 12 लाख ऐसे वोटर हैं जो अब जीवित नहीं हैं. जबकि 17 लाख प्रवासी हैं जो स्थायी रूप से बिहार छोड़ चुके हैं.

सवाल: पहले फेज़ में मतदाता को 11 दस्तावेज चुनाव आयोग को देने थे, जिसके तहत उन्हें वोटर लिस्ट में शामिल किया जाता. यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और कोर्ट ने इन दस्तावेजों में आधार कार्ड शामिल करने को कहा. अगर चुनाव आयोग इतने आंकड़े दे रहा है, क्या इन आंकड़ों पर और आयोग की स्वतंत्रता पर सवाल करना जायज होगा?

जवाब: इन आंकड़ों पर अविश्वास करने का कोई विशेष कारण नहीं है. 12 लाख लोग ऐसे होंगे जो मृतक होंगे और उनके नाम नहीं हटाए गए होंगे. चुनाव आयोग को ये नाम हटाने चाहिए. बिहार में कोई 10-15 लाख स्थायी प्रवासी होंगे, जिनका नाम वोटर लिस्ट में है. ये भी अविश्वास करने की कोई बात नहीं है. कुछ लोगों के नाम डुप्लीकेट थे, उनके नाम कटने चाहिए या उनको विकल्प देना चाहिए."

मेरा सवाल बस ये है कि इसके लिए आपको एसआईआर नामक प्रक्रिया की क्या ज़रूरत थी? एक बिल्कुल स्टैंडर्ड चीज़ होती है समरी रिवीज़न कहा जाता है. समस्या ये है कि हम गोली को और ऑपरेशन को एक समझ बैठे हैं.

एसआईआर बिहार की वोटर लिस्ट में संशोधन नहीं है. ये समझना चाहिए. सब कहते हैं वोटर लिस्ट में सुधार कर रहे हैं, क्या बुराई है? 2003 में हुआ था फिर कर रहे हैं, क्या बुराई है?

ये जो एसआईआर चीज़ हो रही है ये केवल बिहार की वोटर लिस्ट में संशोधन नहीं है. ये पूरे देश के लिए आदेश है, जो कि संयोग से बिहार से शुरू हो रहा है. यह वोटर लिस्ट में संशोधन नहीं है, बल्कि नए सिरे से वोटर लिस्ट बनाई जा रही है. इसका अंतर समझना होगा, ज़मीन- आसमान का अंतर है दोनों में.

घर-घर जाकर वोटर लिस्ट चेक करना, जो व्यक्ति मृतक है या कोई और बात है तो उनका नाम काटना और नए व्यक्ति का नाम जोड़ना, संदेह होने पर चेक करना, ये सब काम चुनाव आयोग हर साल करता है. अभी बिहार में जनवरी महीने में ये प्रक्रिया हुई है. छह महीने भी नहीं बीता है.

आज जब चुनाव आयोग बता रहा है कि 12 लाख लोग मृतक हैं तो आयोग को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए कि छह महीने पहले आप क्या कर रहे थे? आपने समरी रिवीज़न किया और इसमें आपको मृतकों का पता नहीं लगा?

image BBC
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सवाल: सुप्रीम कोर्ट ने प्रक्रिया को जारी रखने को कहा और आधार कार्ड शामिल करने के लिए कहा. इस पर आपका क्या कहना है?

जवाब: सुप्रीम कोर्ट मे चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि इस प्रक्रिया को मत रोकिए. जब कोर्ट ने हमारे जैसे याचिकाकर्ता से पूछा कि क्या आप प्रक्रिया को रुकवाना चाहते हैं तो हमने कहा- नहीं. हम चाहते हैं कि प्रक्रिया पूरी होने के बाद सुप्रीम कोर्ट की बिना अनुमति के ड्राफ़्ट लिस्ट जारी नहीं की जाए.

चुनाव आयोग ने कोर्ट से कहा कि स्टे मत दीजिए, तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पहले सुनवाई पूरी कर लेते हैं. यानी कि यह प्रैक्टिकली स्टे है. यानी कि यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद तब तक ड्राफ़्ट लिस्ट जारी नहीं होगी जब तक सुप्रीम कोर्ट सुनवाई पूरी नहीं कर लेता. और हम यही चाहते थे.

तीन चीज़ें हो रही हैं जो 75 साल के इतिहास में भारत में कभी नहीं हुईं. पहला- आज तक कभी भी ये नहीं किया गया कि वोटर लिस्ट को कूड़ेदान में डालकर कोरे काग़ज़ में नई वोटर लिस्ट बनाई गई हो. ऐसा 2003 या उससे पहले कभी नहीं हुआ था.

दूसरा- पहली बार वोटर से कहा जा रहा है कि तुम फॉर्म भरोगे, तब तुम्हारा नाम वोटर लिस्ट में आएगा नहीं तो नहीं आएगा. आज तक ऐसा होता था कि अगर मैं अपना घर बदलता हूं तब अपना फ़ॉर्म जमा करना होता था नहीं तो फ़ॉर्म देने की कोई ज़रूरत नहीं होती थी.

तीसरी चीज़- पहली बार नागरिकता की धारणा बदली जा रही है. पहले ये था कि अगर आप इस देश में रहते हैं और उम्र 21 से ऊपर है तो आप नागरिक होंगे. अगर आपके ख़िलाफ़ कोई शिकायत है या कोई दिक्कत नज़र आए तो जांच होगी, नहीं तो आप भारतीय हैं. अब आपसे ये कहा जा रहा है कि आप प्रमाण लेकर आइए कि आप भारतीय हैं. दस्तावेज लेकर आइए. आज तक 75 साल में कभी ऐसा नहीं किया गया.

image BBC 'ये 11 दस्तावेज़ बिहार की 45 फ़ीसदी आबादी के पास नहीं हैं'

सवाल: बिहार में दस्तावेज उपलब्ध कराना एक चैलेंज है. इस प्रक्रिया के दूसरे फेज़ में एक क्लॉज़ है जिसके तहत ईलेक्टोरल रोल ऑफ़िसर स्वत: संज्ञान के तहत पूछताछ कर सकता है. क्या इस क्लॉज़ का दुरुपयोग भी हो सकता है?

जवाब: चुनाव आयोग ने 24 जून को आदेश निकाला और कहा कि आपको अपनी नागरिकता साबित करनी होगी. इसके लिए दो चीज़ें करनी होगी. अगर नाम 2003 की वोटर लिस्ट में है तो आपकी नागरिकता मान ली जाएगी. हालांकि, इस लिस्ट या और भी जो वोटर लिस्ट बनीं उनमें क्या अंतर है, मुझे पता नहीं.

2003 की लिस्ट में जिनका नाम था उन्हें कोई ओर सर्टिफ़िकेट दिखाने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन जिनका नाम नहीं था उन तमाम लोगों को अपना और अपने माता या पिता के जन्म और स्थान का प्रमाण पत्र देना होगा. और अगर जन्म 2004 के बाद हुआ है तो माता-पिता दोनों का सर्टिफ़िकेट देना होगा. ये सब ओरिजिनल आदेश में था. जब चुनाव आयोग को समझ में आया कि ये असंभव है तो उन्होंने नियम बदले.

चुनाव आयोग ने जो 11 दस्तावेज बताए थे उनमें से एक भी दस्तावेज ऐसा नहीं है जो बिहार की 45 फ़ीसदी आबादी के पास हो. सबसे बड़ा दस्तावेज वहां मैट्रिक का है, जो मुश्किल से 40 फ़ीसदी लोगों के पास है. बाकी जो दस्तावेज हैं कोई दो या तीन फ़ीसदी लोगों के पास होंगे."

यही कारण है कि बिहार में इस वक्त मार लगी हुई है. जाति प्रमाण पत्र या आवास प्रमाण पत्र के लाखों आवेदन आए हैं.

चुनाव आयोग ने इन 11 दस्तावेजों में उन्हें शामिल ही नहीं किया जो लोगों के पास हैं. लोगों के पास आधार कार्ड, राशन कार्ड, एपिक कार्ड या गांव में मनरेगा का जॉब कार्ड होता है. इन चारों चीज़ों को शामिल ही नहीं किया गया. जबकि वोटर के रजिस्ट्रेशन का जो नियम चुनाव आयोग ने बनाया है उसमें आधार कार्ड शामिल है. एपिक कार्ड चुनाव आयोग खुद देता है, उसे ही वो नहीं मान रहा है.

चुनाव आयोग ऊटपटांग दस्तावेज मांग रहा है.... इसीलिए मैं बोलता हूं कि क्या आप बुड़बक समझते हैं दुनिया को?

image BBC 'चुनाव आयोग का आदेश महिला विरोधी है' image BBC

सवाल: विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि बिहार में दो तरह के वोटरों को किनारे किया जा रहा है, जो सत्ताधारी पार्टियों को पारंपरिक रूप से वोट नहीं देते हैं. इनमें मुसलमान और यादव शामिल हैं. इसके अलावा सरकार के लोग भी सवाल उठा रहे हैं कि जब से यह प्रक्रिया शुरू हुई वहां पर एकाएक बहुत ज़्यादा आवेदन आ गए. ये लोग कह रहे हैं कि अररिया और किशनगंज में 100 फ़ीसदी आबादी में 103 या 105 फ़ीसदी आवेदन आए हैं. इसका मतलब है कि कुछ लोग ग़ैर-मुल्की हैं. क्या इसमें कोई सच्चाई है?'

जवाब: चुनाव आयोग का आदेश मुसलमान विरोधी या यादव विरोधी बिल्कुल नहीं है. आदेश में ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी जाति या समुदाय को टच करता हो. आदेश महिला विरोधी है क्योंकि महिलाओं पर डबल बर्डेन है. महिलाओं के पास मैट्रिक सर्टिफ़िकेट बहुत कम होते हैं. दूसरा ये कि महिला से कहा जा रहा है कि वो अपने मायके से अपने मां-बाप का 2003 वोटर लिस्ट से नाम लेकर आओ.

इसलिए यह आदेश महिला विरोधी है. प्रवासी विरोधी है, इसमें कोई शक नहीं है. ग़रीब और अनपढ़ विरोधी भी है. यह आदेश मुसलमान या यादव किसी को आइसोलेट नहीं करता है.

जहां तक सीमांचल और किशनगंज की बात है, यहां के इलाक़े नेपाल से सटे हुए हैं. यहां के लोगों की शादी नेपाल के लोगों से होती है. नेपाल के नागरिक भारत में चुनाव भी लड़ चुके हैं. लेकिन इन्हें नेपाल नहीं दिखता, इन्हें दिखता है बांग्लादेश. क्योंकि नेपाल में हिंदू हैं. जबकि ये बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि बॉर्डर ही नहीं है.

अगर आपकी चिंता विदेशियों के बारे में है, तो आपकी चिंता नेपाल होनी चाहिए. जबकि चिंता बांग्लादेश में है. किशनगंज के बारे में कहा गया कि यहां पर 120 प्रतिशत आधार कार्ड हैं. लेकिन पता चलता है कि यह पूरे बिहार, मुंबई और दिल्ली में भी है. ये कोई किशनगंज की विशेष समस्या नहीं है.

अगर आपको किन्हीं विशेष जगहों पर शक़ है कि वहां विदेशी हैं. तो आप उन इलाक़ों को चिह्नित कर वोटर लिस्ट नए सिरे से बनाइए. दूसरी बात- अगर आपको शक़ है तो स्पष्ट तौर पर दस्तावेज मांगिए.

इसमें एक बात और है कि अगर कोई विदेशी अवैध रूप से आता है तो वो पहला काम दस्तावेज जुटाने का ही करेगा. तो ये जो प्रक्रिया है उसे वो आराम ने पूरी कर लेगा. इसमें फंसेगा वो ग़रीब, जिसने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसे अपनी नागरिकता साबित करनी पड़ेगी.

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image BBC 'चुनाव आयोग की प्रक्रिया असंवैधानिक' image BBC

सवाल: क्या भारत में वोटर आईडी कार्ड बनाने के सिस्टम में कमी है? क्योंकि कई मामले ऐसे आए हैं जो भारत के नागरिक नहीं थे उनके पास भी वोटर आईडी मिले हैं.

जवाब: वोटर लिस्ट में व्यापक सुधार होना चाहिए. इसके बारे में कोई दो राय नहीं होनी चाहिए. मैं सिर्फ़ प्रक्रिया पर प्रश्न कर रहा हूं. दूसरा ये कि क्या आधार और एपिक कार्ड गड़बड़ हुए हैं? बिल्कुल हुए हैं. इसके लिए चुनाव आयोग ज़िम्मेदार है.

वो चुनाव आयोग जो खुद अपना ही काम नहीं कर पा रहा है और पलट के कहता है कि मैं अपना काम नहीं कर पाया इसलिए तुम मेरा काम करो.

सवाल: सुप्रीम कोर्ट ने जब कहा कि कम से कम आधार लिया जाए. इससे लाखों लोगों को राहत मिली. लेकिन संसद की पब्लिक अकाउंट कमेटी कहती है कि आधार के बायोमिट्रिक सिस्टम में 20-30 फ़ीसदी की ख़ामी हो सकती है. तो क्या एसआईआर के दूसरे फेज़ में अब आधार के बेसिस पर जो जांच होगी, उसमें और भी लोग बाहर निकल सकते हैं? क्योंकि यह बायोमिट्रिक होगी और आनन-फानन में होगी.

जवाब: अभी चुनाव आयोग ने आधार को स्वीकार नहीं किया है. केवल सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है. मेरा अनुमान है कि चुनाव आयोग इसका विरोध करेगा, क्योंकि चुनाव आयोग का खेल पूरा नहीं होगा. अगर चुनाव आयोग केवल बेहतर चुनाव कराना चाहता है तो इसे स्वीकार कर लेगा कि अच्छा सुझाव है.

सुप्रीम कोर्ट ने केवल आधार नहीं बोला था. सुप्रीम कोर्ट ने आधार, एपिक कार्ड और राशन कार्ड, तीन चीज़ों का ज़िक्र किया था. अगर ये तीन चीज़ें हो जाती हैं तो निश्चित ही बिहार के 95 फ़ीसदी लोग इससे कवर हो जाते हैं. तब भी पांच फ़ीसदी लोग बच जाएंगे.

अगर 100 फ़ीसदी भी कवर हो जाते हैं तब भी मुझे ये आदेश मान्य नहीं है. ये प्रक्रिया ही असंवैधानिक है.

सवाल: लेकिन, अगर सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया को संवैधानिक क़रार देता है तो भी योगेंद्र यादव इसे असंवैधानिक मानेंगे?

जवाब: फिर तो तकनीकी रूप से संवैधानिक होगा ही. सुप्रीम कोर्ट से ऊपर कौन कह सकता है? लेकिन, मेरी अपनी समझ जो आज है और मैं याचिकाकर्ता भी हूं. यही बात मैं सुप्रीम कोर्ट में भी कही है.

ये असंवैधानिक क्यों है? भारत के संविधान का अनुच्छेद 10 स्पष्ट तौर पर कहता है कि अगर आप इस देश के नागरिक माने जाते हैं तो आप नागरिक बने रहते हैं. इसका मतलब क्या है? अगर 20 साल से कोई वोट दे रहा है और उसका नाम वोटर लिस्ट में है तो क्या वह नागरिक नहीं माना जाएगा?

दूसरी बात ये कि रिप्रेज़ेंटेशन ऑफ़ पीपल्स एक्ट का बेसिक नियम है कि वोटर बनाना या एनरोल करना सरकार की ज़िम्मेदारी है, आप इस ज़िम्मेदारी से पीछे हट रहे हो.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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