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जिनके लिखे 'वंदे मातरम्' ने जगाई थी आजादी की अलख, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाओं में दिखती है क्रांति की भावना

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नई दिल्ली, 25 जून . साल था 1896 और जगह थी कोलकाता. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था और उस दौरान रवींद्रनाथ टैगोर ने एक गीत गाया, जो अधिवेशन में मौजूद हर किसी की जुबां पर चढ़ गया. ये गीत था ‘वंदे मातरम्’, जिसे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा था. यह गीत न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बना, बल्कि इसने आजादी के मतवालों में ऐसा जोश भरा कि यह गीत स्वतंत्रता संग्राम का नारा बन गया.

भारतीय साहित्य के ‘ऋषि’ कहे जाने वाले बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय आधुनिक बंगाली साहित्य के पितामह और भारतीय राष्ट्रवाद के प्रेरणास्रोत थे. उनकी लेखनी में देशभक्ति, सामाजिक सुधार और भारतीय संस्कृति की गहरी छाप दिखाई देती है. ‘आनंदमठ’ जैसे उपन्यास और ‘वंदे मातरम्’ जैसे राष्ट्रीय गीत के रचयिता के रूप में उन्होंने साहित्य जगत को समृद्ध किया. साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में भी भारतीयों के दिलों में अपनी लेखनी से जोश भरने का काम किया. उनकी रचनाओं में बुद्धि, भावना और क्रांति का अद्भुत संगम दिखाई देता है.

दरअसल, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के जन्मदिन की तारीख स्पष्ट रूप से पता नहीं चल पाती है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म 26 या 27 जून 1838 को बंगाल के नदिया जिले के कंथलपाड़ा गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता यादवचंद्र चट्टोपाध्याय एक सरकारी अधिकारी थे और उनके एक भाई संजीव चंद्र चट्टोपाध्याय एक उपन्यासकार थे, जिन्हें अपनी किताब ‘पलामू’ के लिए जाना जाता है.

बंकिम चंद्र ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की और 1857 में कला स्नातक (बी.ए.) की डिग्री हासिल की, जो उस समय बहुत कम भारतीयों को मिलती थी. उन्होंने साल 1869 में कानून की डिग्री हासिल की. अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए बंकिम चंद्र ने ब्रिटिश सरकार के तहत डिप्टी मजिस्ट्रेट और डिप्टी कलेक्टर के रूप में लंबे समय तक सेवा की. सरकारी नौकरी के साथ-साथ उन्होंने साहित्य में भी योगदान दिया. वे सामाजिक और धार्मिक सुधारों के समर्थक थे और अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को जागरूक करते थे.

बंकिम चंद्र को बंगाली उपन्यास का जनक माना जाता है. उनकी पहली उल्लेखनीय रचना ‘दुर्गेशनंदिनी’ (1865) थी, जो बंगाली साहित्य का पहला महत्वपूर्ण उपन्यास था. इसके बाद उन्होंने ‘कपालकुंडला’, ‘मृणालिनी’, ‘विषवृक्ष’, ‘कृष्णकांत का वसीयतनामा’ और ‘आनंदमठ’ जैसे प्रमुख उपन्यास लिखे. आनंदमठ (1882) उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसमें ‘वंदे मातरम्’ गीत शामिल है. यह गीत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बना और बाद में भारत का राष्ट्रगीत बना.

‘वंदे मातरम्’ की रचना बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में की थी, लेकिन इसे पहली बार 1882 में ‘आनंदमठ’ उपन्यास में प्रकाशित किया गया. इस गीत की भावनात्मक और प्रेरणादायक पंक्तियों ने लोगों का ध्यान खींचा. यह बंगाली समाज में लोकप्रिय हो गया और जल्द ही ये पूरे भारत में मशहूर हो गया. साल 1896 में रवींद्रनाथ टैगोर ने कोलकाता में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में ‘वंदे मातरम्’ को गाया, जिसे इस अधिवेशन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली. यह गीत स्वतंत्रता संग्राम का नारा बन गया. स्वदेशी आंदोलन (1905-1911) के दौरान खासकर इसे बंगाल विभाजन के विरोध में बड़े पैमाने पर गाया गया.

हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने ‘वंदे मातरम्’ को विद्रोही गीत मानकर इसके गाने पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की. अंग्रेजों का मानना था कि यह गीत राष्ट्रीय चेतना को जागृत करता था. इस गीत के कुछ हिस्सों को लेकर बाद में धार्मिक विवाद भी हुआ, क्योंकि इसमें भारत माता को हिंदू देवी के रूप में चित्रित किया गया था, जिसे कुछ समुदायों ने आपत्तिजनक माना. हालांकि, 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रीय गीत के रूप में सम्मानित किया गया. 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा ने ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया और इसके पहले दो छंदों को आधिकारिक रूप से मान्यता दी.

बंकिम चंद्र की रचनाएं न केवल बंगाली साहित्य, बल्कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवादित होकर लोकप्रिय हुईं. उनकी रचनाओं ने रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे साहित्यकारों को भी प्रेरित किया. चट्टोपाध्याय का निधन 8 अप्रैल 1894 को हुआ, लेकिन उनकी रचनाएं भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में अमर हो गईं.

एफएम/जीकेटी

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