Next Story
Newszop

व्यक्ति विशेष : रांची की गलियों में हिंदी और रामकथा के विलक्षण साधक फादर कामिल बुल्के की स्मृतियां आज भी जीवंत

Send Push

रांची, 31 अगस्त . गौर वर्ण, लंबा कद, तेजस्वी मुखमंडल, सफेद लंबी दाढ़ी, चमकती आंखें और हाथ में किताब. 1980 के दशक तक रांची की गलियों और सड़कों पर पैदल या साइकिल से गुजरते इस संत-सदृश बुजुर्ग का दर्शन जिसे भी हुआ, उसकी स्मृति में वे आजीवन एक जीवंत छवि बन गए.

उनके व्यक्तित्व की आभा ऐसी थी कि राहगीर अनायास ठिठक जाते और श्रद्धा से सिर झुका देते. ये थे फादर कामिल बुल्के. हिंदी-अंग्रेजी के सबसे प्रामाणिक शब्दकोश के रचनाकार और रामकथा के विलक्षण साधक.

यूरोप के बेल्जियम में 1 सितंबर 1909 को जन्मे बुल्के ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. लेकिन, नियति ने उनके लिए और ही राह तय कर रखी थी. 1934 में भारत आकर जेसुइट मिशनरी बने तो शायद वे खुद भी नहीं जानते थे कि हिंदी-संस्कृत और तुलसी-वाल्मीकि की रामकथा में ऐसे रम जाएंगे कि पूरा जीवन इसी तपस्या को समर्पित कर देंगे.

हिंदी साहित्य और रामकथा पर उनके योगदान के लिए Government of India ने 1974 में उन्हें देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण प्रदान किया. शुरुआती वर्षों में Patna, कोलकाता और इलाहाबाद में रहते हुए वे हिंदी के रंग में रंग गए.

कहते हैं कि जब वे बनारस के घाटों पर घूम रहे थे, तो एक साधु तुलसीदास की चौपाइयां गा रहा था. बुल्के ठिठककर मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. उसी क्षण उन्होंने ठान लिया कि वे रामकथा के इस अथाह सागर में उतरेंगे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए किया और तुलसी-वाल्मीकि की कृतियों का गहन अध्ययन किया.

एमए के बाद उन्होंने प्रख्यात विद्वान डॉ. धीरेंद्र वर्मा के मार्गदर्शन में ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ पर पीएचडी शोध प्रबंध लिखा. इस शोध के लिए उन्होंने 300 से अधिक रामकथाओं का अध्ययन किया. यह इतना गहरा और मौलिक था कि इसने हिंदी साहित्य जगत में हलचल मचा दी. 1951 में वे रांची आए और सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष बने. उनकी कक्षाएं किसी उत्सव से कम नहीं होती थीं.

हिंदी को वे भाषा से अधिक संस्कृति मानते थे. रांची में ही उन्होंने 1968 में हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश का काम पूरा किया, जिसे आज भी सबसे प्रामाणिक माना जाता है. कहा जाता है कि वे रोज 12-14 घंटे शब्दों पर काम करते थे. जब किसी अर्थ को लेकर शंका होती, तो गांव-गांव घूमकर लोक-प्रयोग तलाश लाते.

एक बार किसी ने पूछा, ”फादर, आप हिंदी इतनी शुद्ध कैसे बोल लेते हैं?” वे मुस्कराए और बोले, ”मातृभाषा जन्म से मिलती है, हिंदी मैंने अपनी आत्मा से चुनी है.”

उनका यह कथन भी खूब चर्चित रहा, ”संस्कृत महारानी है, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी.” लोग उन्हें ‘रामकथा पुरुष’ कहते थे, लेकिन वे विनम्रता से कहते, ”मैं तो राम के नाम का छोटा-सा सेवक हूं.”

रांची में एक और प्रसंग खूब सुनाया जाता है. एक बार स्टेशन पर एक कुली ने उनसे पूछा, ”बाबा, आप किस ट्रेन से आए हैं?” बुल्के मुस्कराकर बोले, ”मैं तो हिंदी की ट्रेन पर सवार होकर बेल्जियम से आया हूं.”

बीमारी के कारण 1982 में उनका निधन दिल्ली में हुआ. निकोल्सन कब्रिस्तान में दफनाए गए बुल्के के अवशेष 2018 में रांची लाकर सेंट जेवियर्स कॉलेज परिसर में पुनः दफनाए गए.

रांची की एक सड़क का नाम भी उनके सम्मान में ‘डॉ. कामिल बुल्के पथ’ रखा गया है.

एसएनसी/एबीएम

Loving Newspoint? Download the app now