कोलकाता, 15 जुलाई (Udaipur Kiran) । शिक्षा व्यवस्था में सुधार के नाम पर विद्यालयों में अर्द्ध वृताकार बैठने की पद्धति को तेजी से लागू करने की पहल की जा रही है। दावा है कि इस व्यवस्था से पिछली बेंच की हीनभावना समाप्त होगी और सभी छात्र शिक्षक के करीब होकर समान रूप से लाभान्वित होंगे।
हालांकि शिक्षाविदों और शिक्षा पर गंभीर दृष्टिकोण रखने वाले लोगों का मानना है कि सिर्फ बैठने की बनावट से शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधरती, जब तक मूलभूत कमियों पर काम न किया जाए।
हुगली जिले के प्रतिष्ठित हिंदी विद्यालय रिषड़ा विद्यापीठ हाई स्कूल के प्रधान शिक्षक और जिले के जाने माने शिक्षाविद प्रमोद कुमार तिवारी का कहना है कि शिक्षा कोई एकरेखीय प्रक्रिया नहीं है। इसकी सफलता कई कारकों पर निर्भर करती है—जैसे छात्रों की रुचि, संशाधनों की उपलब्धता, शिक्षकों की योग्यता, पाठ्यक्रम की संरचना और मूल्यांकन प्रणाली।
वर्तमान में 30 से अधिक शिक्षण विधियों का उपयोग दुनिया भर में होता आ रहा है—मांटेसरी, डाल्टन, खोज पद्धति, वैज्ञानिक विधि, संवाद विधि इत्यादि। यदि कोई एक पद्धति पूर्ण होती, तो इतनी विधाएं जन्म ही नहीं लेतीं।
तिवारी का मानना है कि शिक्षा को संवेदनशीलता, रुचि-आधारित मार्गदर्शन और शिक्षक की प्रेरक उपस्थिति की आवश्यकता है, नाकि ‘कॉस्मेटिक बदलाव’ की।
तिवारी ने सवाल उठाया, क्या अर्द्ध वृत में बैठाने भर से किताबों की गुणवत्ता या शिक्षक की तैयारी बदल जाएगी? उनका मानना है कि बच्चों को उनके स्वाभाविक कौशल के अनुरूप दिशा देना ज़रूरी है, न कि केवल फर्नीचर और बैठने की शैली में बदलाव कर देना।
प्रख्यात क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, अगर उन्हें अर्द्ध वृत में बैठाकर पढ़ाया जाता तो क्या वे शिक्षाविद बन जाते?
उन्होंने यह भी जोड़ा कि फिल्मों में दिखाई जाने वाली भावनात्मक और आदर्श शिक्षण स्थितियां वास्तविकता से दूर होती हैं। शिक्षा व्यवस्था सुधारने के लिए जमीनी प्रयास, नीतिगत दृढ़ता और व्यवहारिक समझ की आवश्यकता है।
उन्होंने व्यंग्य करते हुए कहा, “पान मसाले का प्रचार अगर अमिताभ बच्चन कर दें, तो भी वह अमृत नहीं बन सकता।”
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(Udaipur Kiran) / धनंजय पाण्डेय
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